अदृष्टपूर्वं हृषितोऽस्मि दृष्ट्वा भयेन च प्रव्यथितं मनो मे ।
तदेव मे दर्शय देवरुपं प्रसीद देवेश जगन्निवास ॥45॥
अदृष्ट-पूर्वम्-पहले कभी न देखा गया; हृर्षितः-अति प्रसन्न; अस्मि-मैं अति प्रसन्न हूँ; दृष्टा-देखकर; भयेन भय से; च-भी; प्रव्यथितम्-कम्पन; मन:-मन; मे–मेरा; तत्-वह; एव–निश्चय ही; मे-मुझको; दर्शय-दिखलाइये; देव-परम प्रभु; रुपम्-रूप; प्रसीद-कृपया करुणा करके; देव-देवेश; जगत्-निवास हे ब्रह्माण्ड के आश्रय।
BG 11.45: पहले कभी न देखे गए आपके विराट रूप का अवलोकन कर मैं अत्यधिक हर्षित हो रहा हूँ और साथ ही साथ मेरा मन भय से कांप रहा है। इसलिए हे देवेश, हे जगन्नाथ! कृपया मुझ पर दया करें और मुझे पुनः अपना आनन्दमयी स्वरूप दिखाएँ।
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भक्ति दो प्रकार की होती है-एक ऐश्वर्य भक्ति और दूसरी माधुर्य भक्ति। ऐश्वर्य भक्ति में भगवान के सर्वशक्तिशाली स्वरूप के चिन्तन द्वारा भक्त भक्ति में तल्लीन होने के लिए प्रेरित होता है। ऐश्वर्य भक्ति में भय और श्रद्धा के भाव की प्रधानता होती है। ऐसी भक्ति में भगवान से दूरी और औपचारिक रूप से शिष्टाचार का पालन करना सदैव आवश्यक समझा जाता है। द्वारकावासी और अयोध्यावासी ऐश्वर्य भक्ति के उदाहरण हैं जो श्रीकृष्ण और भगवान श्री राम का आदर-सम्मान अपने राजा के रूप में करते थे। सामान्य नागरिक अपने राजा के प्रति अत्यंत निष्ठावान और आज्ञाकारी होते हैं यद्यपि उनके उसके साथ कभी घनिष्ठ सम्बंध नहीं होते।
माधुर्य भक्ति में भक्त भगवान के साथ निजता के संबंध का अनुभव करते हैं। ऐसी भक्ति में यह भाव प्रमुख रहता है कि 'श्रीकृष्ण मेरे हैं और मैं उनका हूँ।' वृंदावन के ग्वाल-बाल जो श्रीकृष्ण से सखा भाव का प्रेम करते हैं, यशोदा और नंद बाबा जो कृष्ण से अपने बालक के रूप में प्रेम करते हैं और गोपियाँ जो उनसे अपने प्रियतम के रूप में प्रेम करती हैं, ये सब माधुर्य भक्ति के उदाहरण हैं। माधुर्य भक्ति ऐश्वर्य भक्ति की अपेक्षा अत्यंत मधुर है। जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज वर्णन करते हैं
सबै सरस रस द्वारिका, मथुरा अरु ब्रज माहिँ।
मधुर, मधुरतर, मधुरतम, रस ब्रजरस सम नाहिँ ।।
(भक्ति शतक श्लोक-70)
भगवान का दिव्य आनन्द उसके सभी रूपों में अत्यन्त मधुर होता है किन्तु फिर भी इसकी श्रेणियाँ हैं। भगवान की द्वारका की लीलाओं का आनंद 'मधुर' और मथुरा की लीलाओं का आनन्द 'अति मधुर' तथा ब्रज की लीलाओं का आंनद मधुरतम है।
माधुर्य भक्ति में भगवान के ऐश्वर्य और सर्वशक्तिशाली स्वरूप को भुला दिया जाता है। भक्त भगवान कृष्ण के साथ चार प्रकार से संबंध स्थापित करता है।
दास्य भावः श्रीकृष्ण हमारे स्वामी हैं और मैं उनका सेवक। स्वयं को श्रीकृष्ण का दास मानने जैसी रक्तक और पत्रक आदि की भक्ति दास्य भाव की भक्ति थी। भगवान को अपनी माता और अपना पिता मानने का भाव भी दास्य भक्ति की श्रेणी है और इसे भी दास्य भाव में सम्मिलित किया गया है।
सख्य भावः श्रीकृष्ण हमारे सखा हैं और मैं उनका अंतरंग सखा हूँ। श्रीदामा, मधुमंगल, धनसुख, मनसुख की भक्ति सखा भाव की भक्ति थी।
वात्सल्य भावः श्रीकृष्ण हमारे बालक हैं और मैं उनका माता-पिता हूँ। यशोदा और नंद की भक्ति वात्सल्य भाव की भक्ति थी।
माधुर्य भावः श्रीकृष्ण हमारे प्रियतम और मैं उनकी प्रेयसी हूँ। वृंदावन की गोपियों की भक्ति माधुर्य भाव की भक्ति थी।
अर्जुन सखा भाव वाले भक्त है और भगवान के साथ भातृ-भाव के संबंध का आनन्द पाते है। भगवान के विराटरूप और दिव्य रूप को देखकर अर्जुन को अद्भुत विस्मय और श्रद्धा का अनुभव होता है किन्तु फिर भी वह सख्य भाव की माधुर्यता चाहता है जिसका स्वाद लेने का वह पहले से ही आदी था। इसलिए वह श्रीकृष्ण से अपने सर्वशक्तिमान विराट स्वरूप जिसे वह अब देख रहा है, को छिपाने और पुनः अपने परम पुरुषोत्तम मानव रूप में प्रकट होने की प्रार्थना करता है।